• Published : 16 Nov, 2015
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​       बस इतनी सी चाहत ​

कहीं कुछ टूटता सा महसूस होता है 
कहीं कोई डाली चटक सी जाती है 
क्यों अस्तित्व खुद ही बिखर रहा है 
हर शख्स जीवन से मुकर रहा है 
बस एक धारा बनना चाहा 
जो समेटे रहती ध्वनि कल-कल 
बहती रहती सदा यूँ ही अविरल 
सरोकार न होता जिसे सुख से 
न दर्द  होता किसी दुःख से 
पहचान न होती किसी पाप की  
न चाहत होती किसी पुण्य की
काश,रह पाता वैसे ही निष्छल
फिर सोचा.......
क्यों न नींव का पत्थर हो जाऊँ 
धरती माँ कि गोद में 
कहीं गहराई में आराम से सो जाऊँ 
जहाँ शाश्वत सत्य अँधेरा हो 
न रहे इंतज़ार कभी ,कोई  सवेरा हो
अपना लेता उस अनन्त स्थिरता को 
पा लेता उस परब्रह्म परसत्ता को 
ए काश मैं झोंका हवा का होता
इधर-उधर ,यहाँ से वहाँ 
बहता हर बन्धन से परे 
हर किसी का प्यारा होता 
जीने का कुछ तो सहारा होता 
उड़ता असमानों में बादलों के संग 
बरसता बूँदों के संग बन के
जीवन की नयी उमंग 
छन भर,ठिठक जाता किसी छत की मुंड़ेर पे 
बिखर जाता खुश्बू सा किन्ही मुस्कुराहटों संग...

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Brijesh Kumar

Member Since: 27 Aug, 2015

भावों को शब्दों में ढाल देता हूँ,कुछइस तरह दिल का गुबार निकाल देता हूँ ...

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