• Published : 17 May, 2016
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लहरों पे चलते हुए पत्ते को कुछ याद आया,

पीछे छोड़ आया मैं अपना आशियाना |

कुछ ऐसा ही लगा जब मन भाग आया,

एक सपने की आड़ मे वो घर छोड़ आया|

महत्व बहुत था जिन सपनो का,

उन सपनो ने बहुत तडपाया|

जाने क्या चाहिए था मन से,

की हर जगह होकर भी मैने खुद को दूर पाया|

एक समंदर मिला जिसे तैरना था,

मानो, बिन पानी सपने का बोझ ढोना था|

एक वक्त मिला फिर रुकने का भी,

तो मन को फिर ना सुकून मिला|

मिलो दूर तक जैसे चलना था,

मिटटी किनारे की चूमना था|

जब पहुचा मैं, मन और सपना निराला,

मेरा ही आशियाना खड़ा था लिए फूलो की माला|

स्वागत हुआ, सत्कार हुआ,

मानो जंग कोई मैं जीत आया|

तब लगा सपना नही किसी बोझ का साया,

ये तो है मंजिल पर सुकून की छाया|

 

 

About the Author

Shipra Parek

Member Since: 23 Aug, 2015

कौन हूँ मैं ,......कभी राख सी उबलती मैं,कभी शीशे में जलती मैं,हर पारदर्शी इंसान में मैं,वो मिटटी की दि...

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