• Published : 06 Sep, 2015
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फिर से

 

भींचे लबों में छिपाई वो बात फिर से

कैफियत बयान करने जो चले अल्फ़ाज़ फिर से

 

दिया वक़्त ज़िंदगी में फ़र्ज़ समझ कर जिसने 

हाल में ना हो सका हक़ अदा फिर से

 

 सोच रहा मुजरिम साहिल पे तन्हा

बह जाएँगे गुनाह हर एक ल़हेर के साथ फिर से 

 

लौट वापस रहा मुसाफिर जानते हुए भी ये

खामोश रात से होगा विसाल अब एक बार फिर से

 

गये ठहेर क़दम सेहरा में अब दूर चलते चलते 

 कर रहे आगाज़ ए तलाश ए आब ए हयात फिर से 

 

रियाकारी में डूबा वो शख्स दिख रहा 

 हो रही खुद ही से मुलाक़ात फिर से

 

 कह रहे आख़िर सब बुरा मुझ ही को 

कर रहा उम्मीद ज़िंदगी में जमाल फिर से

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Abuzar Jamal

Member Since: 31 Aug, 2015

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