• Published : 16 Sep, 2015
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गीली रेत में घरोंदे हम जब भी बनाते थे

बिखरते थे, चटकते थे, दरारों में सिमटते थे

 

लहरें पास आती थी, ज़रा बस छू के जातीं थीं

घरोंदे का पिघल जाना, यूँ माशूका सा मिल जाना

 

बाँहों में बिखर के यूँ, और तुममे ही समां जाना

न जाने वो था इक इश्क़, या मंज़र था तबाही का

 

मैं ले आया पहाड़ों से, बस काट के पत्थर

लगा के अब घरोंदे को नहीं मिल पाएंगी लहरें

 

आशिक़ था समंदर भी, नहीं माना रुकावट को

चला आया वो मिलने फिर, बहा के ले गया फिर से

 

ये सच्ची आशिक़ी ही है, ये रेतीला सा पानी है

रेती जब अकेली हो, सूखी सी पड़ी निर्जर

 

समंदर भी अकेला है, पड़ा प्यासा तड़पता फिर

वो आता है, किनारे पे, मिलने इस सहेली से

 

रेती खुश बड़ी हो कर, पिघलती है इसी जल में

मचलती है थरकती है, वो पानी को समाती है

 

मदहोशी में समंदर भी, बनता है बड़ी लहरें

वो जाता दूर तक फिर से, भरे पुरज़ोर रेती को

 

बुझाता प्यास रेती की, मिटाता ग़म किनारों का

यूँ लगता है, बड़ा आशिक़ ये मंज़र है

 

लहरों का, घरोंदों का, ये रेती का, किनारों का

बड़ा खुश मैं हुआ मिल के, नसीबों को सराहा फिर

 

तू रेती है मेरी हमदम, मैं चाहत हूँ समंदर सी...

मैं चाहत हूँ समंदर सी............. अज्ञेय

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Agyeya Tripathi

Member Since: 14 Aug, 2015

Poet at heart and development consultant at work, the grass root level population is inspiration to my writing and work....

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