सीमाहीन
पगडंडी पर
चलती रही तुम्हारे साथ
जीवन भर तुम्हारी
शक्ति ,ज्योती और
गति बनकर......
बही हूँ
प्रबल-प्रवाह सी
तुम्हारें क्षीण पलों में
अनंत दिशाओं सी
असँख्य क्षणों की
सहचर बनकर......
माँ, सखी
बान्धवी, वधू
बेटी और प्रिया
इन सभी रूपों में
बार- बार मैं आती
रही हूँ ढलकर.......
फिर क्यों
आकाश गंगा
के उस सुनसान तटपर
मैं बिखर रही हूँ आज
तुम्हारी अँजुरियों से
रेत सी झरकर......!
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