• Published : 22 Sep, 2020
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पुरुष और स्त्री दो ऐसी विभक्तियाँ है जिसमें सारा संसार समां सकता है, ईश्वर ने इन्हें एक दुसरे से जुड़ने के जो स्वरुप प्रदान किये हैं वो संभवतः यही रिश्तें हैं जो हम जीते है और जिनके इर्द गिर्द हमारी पूरी जिंदगी का ताना बाना बुन जाता हैं I कोई कहता हैं की रिश्ते ऊपर से बन के आते हैं और कुछ को लगता हैं की उनको बनाने वाले हम ही हैं, इस विषय में कुछ मत ये भी हैं की बनाने की अपेक्षा निभाने वाले चरित्र की ओर ज्यादा आकर्षण होना एक नवीन रिश्ते की अच्छी शुरुआत मानी जा सकती है.

माँ-पुत्र, पिता-पुत्री, भाई-बहन और पति-पत्नी ऐसे ही कुछ रिश्ते है जो हम में से हर एक के जीवन को किसी न किसी पल जरूर छूते हैं; कोई भी सामजिक तौर से सार्थक जीवन इसको जिए बगैर अधूरा ही होगा I इन सब में भी पति-पत्नी का रिश्ता अनमोल है; क्यों की उसमें सृजन करने की क्षमता है, नव जीवन को संसार में लाना और फिर उसे अपने प्यार से सींचना एक अलौकिक ग्रन्थ सा है I इस ग्रन्थ की रचना अगर जीवन का उद्देश्य कहा जाये तो कुछ आपत्ति होगी, लेकिन सांसारिक माया मोह से भिन्न ये रचनाएँ जीवन की उद्देश्यपूर्ण और निस्स्वार्थ परिकल्पनाओं का उद्गम स्थान है; इन्हीं कल्पनाओं की उत्पत्ति किसी भी परिवार के दो स्तम्भों के परस्पर प्रेम और सौहाद्र को प्रदर्शित करता है I ये कल्पनायें ही हैं जो एक पति पत्नी को अपने मुख्यधारा परिवार से जोड़े रखती है, और एक दिन अपने पुत्र या पुत्री के नवीन परिवार को बसाने में सहायक होतीं हैं; फिर यही चक्र चला करता है I काल चक्र की तरह ये चक्र "मैं समय हूँ" की जगह "मैं जीवन हूँ" का उद्घोष करता सा प्रतीत होता है I

ये चक्र बहुत पुराना है और इसकी चर्चा सामाजिक बंधनों के बीच नारी की दबी जबान की तरह खुले तौर पे कम ही की जाती है, विषय वस्तु ये है कि इसका किसी भी पारिवारिक परिपेक्ष्य में इतना गूढ़ रूप से विद्यमान होना इसको जीवन का एक ऐसा अंग बनाता है जिसके बारे में चर्चा करना एक आवश्यकता नहीं समझा जाता I भले ही हम इसे रोज़ जीते है, देखते हैं, महसूस करते है, विचरते हैं पर इसके बारे में सोचना; शायद इसकी कभी आवश्यकता ही नहीं समझी I हमारे मन में आवश्यकता तो वो समझी जाती है जिसे पाने से मन को कुछ जीतने की तसल्ली हो, जो हमसे दूर हो, दूसरे के पास हो, जिसके लिए हम दिन रात एक करें, मेहनत करें, जान लगा दें; पर ये रिश्ता तो हमे मिला है जो कुछ दिन के बाद अपनी नवीनता खो देता है, उस आनंद से हम आगे आ जाते हैं जिसमें हर नयी चीज़ को पाने के बाद एक ख़ुशी महसूस होती है I इस आपा धापी में ये भूल जाते है की ये रिश्ता कोई चीज़ नहीं अपितु जीवन है, अनमोल जीवन और ये रिश्ते कमोवेश इस जीवन का आधार हैं; ये समय के साथ ख़ुशी कम करने वाले नहीं बल्कि ख़ुशी बढ़ाने वाले होने चाहिए I

सभी रिश्तों में पति-पत्नी का रिश्ता एक ऐसा बिंदु है जिसकी परिधि में देवलोक को छोड़ के बाकी सबकुछ व्याप्त है; देवलोक को छोड़ना इसलिए जरूरी है की इश्वर के प्रेम से हमारे प्रेम की तुलना मात्र हमें इस लोक से विरक्त कर दूसरे लोक में ले जाती है, जो वैराग्य के लिए तो आवश्यक है पर गृहस्थ के लिए नहीं I पति-पत्नी का रिश्ता पूरक है, एक अभिन्न अंग है जो नैसर्गिक रूप से निर्माण और त्याग की धरा पे बना है I यही एक ऐसा रिश्ता है जो किसी भी मनुष्य रुपी शरीर के अंतिम तीर्थ तक उसके साथ रहता है, पास रहता है; पूरा जीवन एक दुसरे को सँभालते, निहारते, लड़ते-भिड़ते, रोते-बिलखते निकाल देते हैं I कुछ अलग न करने की चाह ही इसे अभिन्न बनाती है नश्वर बनाती है, यही इसका प्रारब्ध है I 
 

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Agyeya Tripathi

Member Since: 14 Aug, 2015

Poet at heart and development consultant at work, the grass root level population is inspiration to my writing and work....

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