• Published : 27 Aug, 2015
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क्यों चुप रहती है

क्यों गुमसुम सहती है

कौन सा बन्धन

जकड़े खड़ा है

दर्द का सिलसिला चल रहा है

 

घुटन ये कैसी

ख़ामोश फिर भी ज़ुबान

तिरस्कार भरे अनगिनत पल

पर फिर भी

कुछ कहती नहीं ज़ुबान

 

अद्भुत ये सहनशीलता

दिल रोता रहा है ख़ून के आँसू

फिर भी हँसती रही ज़ुबान

 

क्यों लबों पे आती नहीं

दर्द की कहानी

नम है आँखे

पर फिर भी क्यों

लबों पे हरदम रहती झूठी सी मुस्कान

 

बेड़ियाँ ये कैसी

जो धागे से भी कच्ची

पर है थोड़ी सी भी हिम्मत

तोड़ उन्हें जाने की

 

पल पल क्यों सहती है

बोझ ज़िन्दगी पे लिए

ख़ामोशी से लाचार बनी

बेमानी ये रीतियाँ

कैसी अजब सी है ये दास्ताँ

 

आत्मसम्मान से उपर

आख़िर कौन सा मोह राहें रोके खड़ा है

तिल तिल के आख़िर क्यों

जीती रहती है ये ज़िन्दगी

 

समाज का रोना

बच्चों की ख़ातिर

ख़ामोशी से सहती हर अत्याचार

क्यों जानवर सी

ज़ुबान बंद जीती जाती है

क्या कचोटता मन नहीं?

 

ज़ख़्मी मन

छलनी आत्मा

ज़िन्दा सी लाश बनी

मौन सी उम्र काटती

उस एक पल की उम्मीद लिए

जिस पल में

ख़ुशियों से दामन भरेगा

 

इसी वहम में जीती जा रही

अपनी हसती

अपनी ताक़त को

नहीं पहचान रही

कब उठोगी?

कब लड़ोगी?

अपने आत्मसम्मान की लड़ाई

 

तुम में भी दिल धड़कता है

सांसे चलती है

दर्द महसूस होता है

तुम्हारी आँखों में भी

सपने प्यारे बसते है

 

अब उठो

क़दम बढ़ाओ

अपनी आवाज़ बुलन्द करो

बता तो उन दंभ,

दौंगी अत्याचारियों को

 

तुम जड़ नहीं हो

निरजीव नहीं हो

कमज़ोर नहीं हो

तुम्हारा भी एक वजूद है

 

जिसको खो कर

एक पल भी जीना

अब तुम्हें मंज़ूर नहीं है

अब तुम्हें मंज़ूर नहीं है।

About the Author

Rachna Arora

Member Since: 13 Aug, 2015

                             Dr. Rachna Arora is a counseling psychologist, blogger, poetess and a happy mother who loves to write on human behavior, relationships and self improvement. With a PhD in psychology and years of counsel...

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