• Published : 27 Aug, 2015
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मैंने तड़पते देखी हैं, तेरे लब पे बातें रुकी हुई ।

एक नदी तुझसे बहती है, सरस्वती सी छुपी हुई ।

 

आँख चमक उठती है जब-जब दिल अठखेली करता है ।

तेरी मजबूरी होगी जो तू कहने से डरता है ।

कोई देख न पाए इनका सच, रहती है नज़र यूँ झुकी हुई ।

एक नदी तुझसे बहती है, सरस्वती सी छुपी हुई ।

 

दावानल मन के भीतर और बाहर बर्फ़ की चादर है ।

अन्दर बन रह जाए लावा, ये भी होता अक्सर है ।

किसे पता कब धधक उठेगी कसक पुरानी बुझी हुई ?

एक नदी तुझसे बहती है, सरस्वती सी छुपी हुई ।

 

हर मौसम तू क्यों सफ़ेद बस ओढ़के अपने अंग चले ?

कुछ नीले, कुछ लाल-गुलाबी रंगों में भी ख़्वाब ढले ।

तू भी खिल, हर शाख पे कितनी नई कोपलें उगी हुई ।

एक नदी तुझसे बहती है, सरस्वती सी छुपी हुई ।

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Shubhankar

Member Since: 26 Aug, 2015

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