
आज है आज़ादी का दिन,
पर इससे अच्छे हम ग़ुलाम ही थे,
कदम से कदम, कंधे से कन्धा,
सब मिलकर एक खड़े थे,
सब का था एक ही सपना, सब की थी एक ही मंज़िल
ना था कोई अंतर कीसीमे, सब थे आज़ादी के दीवाने
कही लड़ रही थी झाँसी कि रानी तो कही अवध की बेगम
कही लड़ रही थी मुग़ल की फ़ौजें तो कहीं अकेले तात्या टोपे
ना कोई हिन्दू था ना कोई मुस्लिम
ना कोई ऊँचा था ना कोई नीचा
देकर तन मन की क़ुरबानी
पुरखों ने पाई यह जूठ मूठ की आज़ादी
पर आएगी सच्ची आज़ादी
जब होंगे आज़ाद इन भेद भाव के विचारों से
जब होंगे हम आज़ाद इस उंच नीच की दीवारों से
जब होगी आज़ादी अपना मज़हब मानने की
जब होगी आज़ादी सबसे प्यार जताने की
जब निकलेगी औरतें रातों को आज़ादी से
जब जन्मेगी गाओं में लड़की आज़ादी से
जब खेलेंगे बच्चे बाग़ों मैं निर्भयता से
जब होगी आज़ादी इस वतन के हर कोने को अपना कहने की
जब हो आज़ादी देश में कही भी बस जाने की
जब होगी जीत कुशलता की
और ना देखेगा कोई पैसा
ऐसे देश के निर्माण पर ही
आएगी सच्ची आज़ादी
तब तक मनाएंगे आज की छुट्टी को
और खुश करेंगे परिवार को
जाएंगे किसी मॉल और लगाएंगे चार चाँद
किसी आज़ादी के 'सेल' को.
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