
ना जाने क्यों लोग .......... चेहरों से दिल लगाते हैं ,
चेहरा ना देखने पर …… खुद को "दीवार" से बातें करते हुए पाते हैं ।
हमसे भी एक शख्स ने .......... जब "चेहरा" देखने की फरमाइश की ,
तब बिना हँसे हमने .......... अपने चेहरे पर एक छींटाकशी करी ।
कि क्या है इस चेहरे में ऐसा भला ………… जो एक वजूद को था उसने नकारा ,
और क्या हो गया अब ऐसा भला .......... जो चेहरा देखते ही उसने था हमें पुकारा ।
ना जाने क्यों लोग .......... चेहरों से दिल लगाते हैं ...........
वो खुश था ये जान अब .......... कि हम एक ज़िंदा इंसान हैं कहीं ,
हम दुखी थे ये सोच तब ……… कि क्यूँ हम बने नादान ……… बात मान उसकी कही ।
चेहरा तो सिर्फ एक पहचान है ……… जो एक सुकून का एहसास देता है ,
असली मुद्दा तो आकर के .......... कहीं और ही जनम लेता है ।
यहाँ जनम उस चेहरे से ज्यादा .......... उन ख्यालों का उस वक़्त हुआ था ,
जहाँ पर इस चेहरे के बिना …… उस शख्स ने मेरे वजूद का खून किया था ।
ना जाने क्यों लोग .......... चेहरों से दिल लगाते हैं ...........
जी तो चाहता है मेरा ............. कि लगा दूँ आग अपने चेहरे पर आज ,
ताकि फिर कोई शख्स ये ना कहे .......... कि क्यूँ हो तुम गुमनाम गलियों की सरताज़ ?
याद रहे कि "चेहरे" पर लिखी भाषा ………… कभी एक ख्वाब नहीं बुनती ,
क्योंकि "चेहरे" तो झूठे होते हैं …… और उनसे निकली आवाज अक्सर होती रूखी ।
वो शख्स ना जाने मेरा "चेहरा" देख …… क्या-क्या अनुमान लगा गया ?
कि खुद अपने चेहरे को तस्वीर में देख …… मेरी तस्वीर को पसीना आ गया ।
ना जाने क्यों लोग .......... चेहरों से दिल लगाते हैं ,
चेहरा ना देखने पर …… खुद को "दीवार" से बातें करते हुए पाते हैं ।।
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