• Published : 04 Sep, 2015
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ना जाने ....
ओस की टपकती बूंदो की तरह ;
जमीं की तड़पती प्यास को बुझाने की,
चाहत को अपने अन्दर लेकर पनपती ,
प्रीत ये कैसी है;
ज़माने भर से कहता फिरुँ मैं,
कैसी अरदास लगाई तेरी,
कि मैं तेरे जैसा हूँ,
और तू;
तू मेरे जैसी है...

यूँ तेरे ख्वाब भी दस्तक देते है,
कभी मेरी उलझन भरी नींद में,
यूँ सावन की तरह,
जिंदगी के चंद लम्हातों को भिंगोने के लिए,
मेरे बिखरे से अकेलेपन को,
अपने जेहेन की संजीदगी से,
 पिरोने के लिए,

कहते हैं ;
परियाँ ख्वाबो में आती हैं ,
जोड़े आसमां में बनते हैं ,
मीत किस्मत से मिलती है,
और वक़्त किसी का नही होता,
इन खयालो को बुननेवाली ;
मीत ये कैसी है;
कभी खुद से छिपता फिरता था,
आज खुद से कहता फिरूँ मैं,
कि मैं तेरे जैसा हूँ,
और तू;
 तू मेरे जैसी है,

ये चंद अल्फ़ाज़ तो नहीं  ,
तेरे होने का यकीं ,
उस क्षितिज के बराबर हैं,
जहाँ होती तो नहीं,
पर शायद इन आँखों के सुकून के लिए,
मिलते हैं आसमां और जमीं,

तेरा जिक्र,
तेरी फ़िक्र,
तेरे इशारों पे चलती;
थमती मेरी साँसें,
बयां के काबिल नहीं,
मेरी इन धड़कनों का तेरी ,
रूह से मुखातिब होना...

बस यूँ ही कभी;
तेरी साँसों की खुश्बू कहती फिरती थी,
आज इस तन्हाई से कहता फिरू मैं,
कि मैं तेरे जैसा हूँ,
और तू;
तू मेरे जैसी है.........

 

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Adarsh Bhushan

Member Since: 30 Aug, 2015

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