• Published : 03 Sep, 2015
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खामोशियों से खेलकर लेता अंजाम डर है,

सिसकियों से मौत का पैगाम डर है ।

 

ना मासूमियत पहचानता, है जो इंसानियत से दूर,

उस इश्क़ का भी शायद इंतकाम डर है ।

 

रूह में लेता हैं अंगड़ाइयाँ जो दरबदर ,

उस मौत का भी तो  दूसरा नाम डर है ।

 

आँखों का धोखा हैं , या हैं कहानी भर,

सच कहूँ तो आज तक बेनाम डर है ।

 

मौत बन जनाज़ो से करता तक़ल्लुफ़ वोह,

इश्क़ करता चींख से सरेआम डर है ।

 

खून के कतरो को पीता जाम में वो,

इस कदर उस रूह का क़त्ल-ए-आम डर है ।

 

लोग कहते हैं, वोह भी जज़्बात हैं इक,

फिर ना जाने क्यों इतना बदनाम डर है ।

 

तन्हाइयों में आता हैं वोह, रहना संभलकर,

सच्चे होसलों के आगे नाकाम डर है ।

 

आहटों में आता हैं वो नज़रे न मिलाना,

जिस्म को झंझोरता बेज़ुबान डर है ।

 

इस डर के खेल को तुम आसां ना समझना,

खेल खेलता मौत से खुलेआम डर है ।

 

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Pankaj Narayan

Member Since: 16 Aug, 2015

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Published on: 03 Sep, 2015

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