• Published : 26 Aug, 2015
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मानवता की बुनियाद हूँ मै, फिर इतना कमजोर क्यों कर डाला !

मुझको चुप कराने में, इतना ज्यादा शोर क्यों कर डाला !! 


 मै जड़ हूँ इंसानियत के वृक्ष का, मगर पत्ते जितना भी न सम्मान मिला !

जिसने दुनिया को सुबह दिया, बदले में उसे बस शाम मिला !! 


 मुझसे रौशन है ये दुनिया, पर मै डर-डर के जलती हूँ !

कोई ख्वाब न देख लूँ गलती से, इसीलिए आँखें मसलती हूँ !! 


 मेरी वजह से जो दुनिया देख सके, उन्हें मेरी घूँघट पे पाबन्दी है !

वो मुझे सिखाते हैं पहनावा, जिनकी अपनों पे ही नियत गन्दी है !! 


 बेटी हो तो मातम ,पर माँ बहन और पत्नी की अभिलाषा है !

क्या यही मेरी परिभाषा है, क्या यही मेरी परिभाषा है !! 


 मुझपे तेजाब फेंक दिया, क्यूंकि मैंने तुम्हारा प्यार कबूल नहीं किया !

तो अब कर लो प्यार इस जले चेहरे से, अगर तुमने कोई भूल नहीं किया !! 


 कब तक दिखाते रहोगे पौरुष अपना, इन अनगिनत बलात्कारों से !

 तुम्हारी नामर्दगी की बदबू आती है, कुछ चीखती दीवारों से !! 


 तुम्हें ख्वाब देखने का हक है, और मेरी नींद पे भी पहरेदारी है !

मुझे छोड़कर ऐ दुनिया वालों, ये किस नए युग की तैयारी है !! 


 तुम्हें आसमान की छूट मिली है, मुझे जमीन पे भी नहीं आज़ादी है !

तुम्हे भीड़ मिली है मस्ती को, और मेरे एकांत में भी बर्बादी है !! 


 जब-जब मैंने लब खोले हैं, मुझे मिला बस अपूर्ण दिलासा है !

क्या यही मेरी परिभाषा है, क्या यही मेरी परिभाषा है !! 


 जो सुधर न पाई सदियों से, कोई ऐसी भूल बनाकर छोड़ दिया !

न जमीं पे गिरी न आसमां से जुडी , वो धुल बनाके छोड़ दिया !! 


 मेरे बिना जरा सोच के देखो, सृष्टि का भी कोई अर्थ दिखाई देता है !

मै न रहूँ तो एक कदम मानव-सभ्यता का चलना भी, असमर्थ दिखाई देता है !! 


 कब तक लड़ती रहूंगी मै, अपने वजूद की इस लड़ाई को !

अब समझना ही होगा तुम्हें, वक़्त की इस अंगड़ाई को !! 


 ये मत भूलो कि पतंग उतनी ही उड़ सकती है, जितनी लम्बी डोर हो !

होगी सुबह एक दिन जरूर वो, चाहे रात कितनी भी घनघोर हो !! 


 डाली को तोडना जारी है, और फल की होती रहती आशा है !

क्या यही मेरी परिभाषा है, क्या यही मेरी परिभाषा है !! 

About the Author

Suyash Pandey

Member Since: 18 Aug, 2015

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