
कुछ लिख डाला अपनी तकदीर खुद के ही हाथों से|
कि पाने की औकात और खोने का हौसला आ गया||
कागज की कस्ती थी, लहरों की मस्ती थी|
आँगन का समुन्द्र था, गुमनाम कंही एक बचपन था||
छपक छपक के नय्या ढूंढ लेती थी खुद ही किनारा|
मन चंचल रहता और मौसम बन जाता था आवारा||
ना जाने पहचान कि दुनिया में कहाँ छूट गया मेरा बचपन |
ऐसा लगता है, रूठ गया है मुझसे मेरा बचपन||
वो चंचल मन जो हवाओं में लहराते ही झूमता था|
बाहों में गिरकर प्यार से उन्हें चूमता था||
वक़्त ने यारो समझदारी का ऐसा पाठ पढ़ाया है|
चलते चलते सम्भलना, पल पल डरना सिखलाया है||
थी एक माशुमियत जो खिंच लेती थी सबकी मुश्कान |
गुमनाम ही सही ,थी अपनी भी एक अलग पहचान||
आज किसी ने हिन्दू किसी ने मुझे मुस्लिम बनाया है|
हर पहचान ने मुझसे मेरा प्यारा बचपन चुराया है||
सब अपने थे, ना जाने कितने सपने थे|
हमे क्या पता था ,इस आज को हमे कल तरसने थे||
वक़्त के वफादारी देखिये जिसने हमे तरासा है|
दोस्ती टूटती रही, दुश्मनी को दिल ये प्यासा है||
ये दर्द कभी दिल को झकोर जाता है|
ये दर्द कभी अपनों की याद दिलाता है||
ये दर्द हँसाता है यही दर्द ही रुलाता है|
दर्द की ब्याँ क्या करे हाँ एक अहसास दिलाता है||
मजबूर कर दे जिंदगी से नाता तोड़ने को ये दर्द |
ये दर्द ही कभी जीने की वजह भी बन जाता है||
हँसती है ये दुनिया मेरी बदनामी पर |
बदनामी मुझे शोहरत दिलाता है||
भूलने की आदत सी हो गयी है||
मतलब वक़्त से ही सबकी याद दिलाता है||
लिखता नही किसी के यादों में|
हाँ लिखता हूँ तो किसी कि याद बहुत आती है||
जिस बचपन ने तोड़ लिया हर नाता मुझसे |
क्यों मुझे हर पल वो रुलाती है?
क्यों तकदीर में ऐसा लिखा होता है?
कुछ पाकर क्यों कोई सबकुछ खोता है??
हसने का दिखावा करने वाला,
क्यों दिल ही दिल में रोता है??
जब सोचा मैंने अपने आपको|
जीने का कुछ मतलब आ गया||
कुछ लिख डाला अपनी तकदीर खुद के ही हाथों से|
कि पाने की औकात और खोने का हौसला आ गया||
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