• Published : 17 Aug, 2015
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एक नया वंश - मानवता

करवट ली धरा ने कुछ, हिला के रख दिया सबको

गरीबों को गरीबी को, मिटा के रख दिया सब कुछ

 

गिरी है एक इमारत भी, मिली है ख़ाक में ऐसे

न सांसें हैं न है धड़कन, मिटी हर एक इबारत है

 

चमन की रौशनी को भी, बुझा कर रख दिया ऐसे

न अल्ला हू न है घंटी, न है गुम्बद शिवाले का

 

मिली है एक अदद सीढ़ी, पड़ी है सीधी धरती पे

न ऊपर को न नीचे को, लगी है सीने माँ के वो

 

समेटे धूप आँगन में, पड़ी है छत अंधेरों की

दीवालें बेबसी जानिब, पड़ी है कुछ कतारों में

 

ये मंज़र आज से पहले, न देखा इन निगाहों ने

पसरती मौत को ऐसे, न सोंचा मैंने ख़्वाबों में

 

चढ़ी चादर कफ़न सी है, बुनी है मुफलिसी इसमें

ये मंज़र हैं बयां करते, ख़ामोशी सैकड़ों घर की

 

अँधेरा कब तलक होगा, ये पूछा इक निवासे ने

कर लो अब उजाला तुम, लगी है भूख मुझको भी

 

कई जन्नत हुई रुस्वा, है तोड़ा दम कुछ अपनों ने

बचे है अब भी दीपक कुछ, जो करते रात को रोशन

 

निचोड़ा तिल के बीजों को, धुना है कुछ कपासों को

जरा सी ले के चिंगारी, बुलाया है दिवाकर को

 

ये जर्जर सी इमारत को, लगा है कुछ तो झटका सा

बुला के पास मुझको फिर, सौंपी जान नन्ही सी

 

पोंछो आंसुओ को अब, लगा दो जान फिर से तुम

गिरे को फिर उठा दो अब, जुदा को अब मिला लो तुम

 

अकेले तुम भी वो भी है, है बिछड़ा हर कोई अब तो

नयी एक नीव रखो अब, दया की इस इमारत का

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Agyeya Tripathi

Member Since: 14 Aug, 2015

Poet at heart and development consultant at work, the grass root level population is inspiration to my writing and work....

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