
स्त्री.....
स्तब्ध हूँ,निःशब्द हूँ,असीमित रोशबद्ध हूँ,उजालों में भी,
अंधेरों के मध्य हूँ,
पराधीनता का आज भी अंश हूँ,
हिदायतों की , नसीहतों की , गठानें बाँधे ,
तमाम रिवाज़ों की बेड़ियों से लस्त हूँ ,
शर्म -ओ -हया जो थमाई गयी है ,
झुकी पलकों में समेटे आज भी ,
ज़माने में ,अपनी तस्वीर से,
आज भी लज्जित हूँ ,
वक़्त की सिरहन से कप -कपा जाती है रूह ,
सोच कर यूँ ,
के,
इंसानियत की कगार पे ,
दुनिया के बाज़ार में ,
सोच के व्यापार में ,
आज भी ,
महज़ इक ” स्त्री हूँ ”…..
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