• Published : 29 Feb, 2016
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कहाँ गया वो मुसाफिर

वो सिरफिरा, ओढ़ कर सत्य का बसंती चोला

वो बारूदी आवाज़ का गोला

जिसकी क़लम के विस्फोट से

राख हो जाता था, इन झूठे नक़ाबपोषों का टोला

कहाँ गयी वो बुलंद आवाज़

सच की हुंकार भरी परवाज़

 

नौ से पाँच के बीच में

भीड़ जैसा दिखने की खींच में

ओढ़ कर उनके ही जैसा नक़ाब, क्या  थम जाएगा तुम्हारे अंदर का इन्क़ेलाब

कहाँ खो गयी तुम्हारे सपनों की मशाल

वो आग जो तुम्हे अपने आप से बेहतर बनाती थी

जिस जुनून की लौ रात भर जगाती थी

जिसमें तप कर हो जाते थे तुम सोना

उन सपनों को अब रात के अंधेरे में

सिरहाने तले दबा कर, करवटें लेते लेते खोना

सुबह ज़िंदा लाश की तरह फिर वही

नौ से पाँच के बीच में

दूसरों से बेहतर होने की खींच में

 

ज़िंदगी की इस दौड़ में ना तो जीत ही मिल पाती है

दिन पर दिन ज़िंदगी इक मसान सी हुई जाती है

जहाँ तमाशबीन लोग पूछते तो है,

ज़िंदा लाश के किनारे खड़े

पर दिल के करीब आते नहीं, उस थोपी हुई मौत से चेताते नहीं

दूर से ही झुर्रियों और हैसियत का हिसाब लगाते हैं

फिर सब 9-5 के समंदर में बहे जाते हैं

क्या हर रोज़ ख़ुदकुशी करना पाप नहीं

क्या तुम पर मेरे मुसाफिर के क़त्ल का इल्ज़ाम नहीं ?

कहाँ गया वो मुसाफिर,

जिसकी क़लम की तलवार

थी ऐसी धारदार

की सिहर जाती थी उस दकियानूसी समाज की आवाज़

करती थी जब तुम्हारी क़लम उन पर वार

कहाँ गया वो मुसाफिर |

 

Based on the protagonist of A Thousand Unspoken Words by Paulami Duttagupta

About the Author

Meenakshi M Singh

Member Since: 02 Dec, 2014

Meenakshi M. Singh  is a prolific poet writing in English and Hindi, published author, mom, entrepreneur, and a certified creative writer with 10 years of IT experience with post graduation in computer systems. She has authored two poetry b...

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